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जयोत्सु के साथ आंतरिक शांति और आध्यात्मिक सद्भाव की खोज करें

एक अराजक दुनिया में सांत्वना तलाश रहे हैं? जयोत्सु आध्यात्मिक साधकों के लिए एक अभयारण्य प्रदान करता है, जो आंतरिक शांति, दिमागीपन और स्वयं और ब्रह्मांड के साथ गहरा संबंध विकसित करने के लिए मार्गदर्शन और अभ्यास प्रदान करता है।

जैनधर्म के ज्ञान का महासागर

णमो अरिहंताणं ।
णमो सिद्धाणं ।
णमो आइरियाणं ।
णमो उवज्झायाणं ।
णमो लोए सव्व साहूणं|

अभिषेक एवं शांतिधारा

जलाभिषेक

मैं जिनेन्द्र प्रभुवर का अभिषेक करना चाहता हूँ!
गंगा नदी का शुद्ध जल ले रहे हैं.
मैं अपनी सांसारिक आत्मा को शुद्ध करना चाहता हूँ,
मैं इस थकी हुई सांसारिक आत्मा को शीतल करना चाहता हूँ।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं जलाभिषेकं करोमीति स्वाहा।

नारियल पानी से स्नान

मैं अभिषेक करना चाहता हूँ, जिनेन्द्र प्रभुवर!
शुद्ध हरे नारियल के मीठे जल से।
मैं भी अपनी आवाज मधुर बनाना चाहता हूं.
मैं आपको प्रणाम करना चाहता हूँ जिनेन्द्र भगवान!
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं नालिकेर रसाभिषेकं करोमीति स्वाहा।

किसी मंदिर में जाने से पहले क्या करें?

घर में स्नान आदि करने के समय से ही अथवा जिनेन्द्र देव के दर्शन की इच्छा प्रारम्भ हो जाती है, तभी से उस दर्शन का फल एवं महत्व प्रारम्भ हो जाता है, ऐसा हमारे पूर्व आचार्यों का कथन है।

जब चिन्तो तब सहस्र फल, लक्खा फल गमणेय।
थोड़ा—कोड़ी अनन्त फल जब जिनवर दिट्ठेय।।

जब चिंतो तब सहस्त्रा फल, लक्खा फल गमन्या,
कोड़ा-कोडी अनन्त फल, जब जिनवर दिट्ठिया.

विचार करने पर सौ फल, ऊपर जाने पर लाख, अनन्त, जिनवर को अर्पण करने पर कोटि फल होते हैं।
यानी जब भगवान के दर्शन का ख्याल ही मन में आता है कि अरे मुझे तो मंदिर जाना है, भगवान के दर्शन करने हैं। ‘जिस क्षण ऐसा विचार आता है, हजार गुना फल मिलना शुरू हो जाता है। जब आप सामग्री लेकर, भजन आदि करते हुए, ईर्यापथ में मंदिर की ओर बढ़ते हैं, तो आपको लाख गुना फल प्राप्त होता है। लेकिन मंदिर पहुंचने पर जिनमूर्ति के साक्षात दर्शन होते हैं, उसका फल निश्चित ही अनंत, करोड़ों गुना होता है। और अधिक जानें

दीक्षा

जो श्रमण हैं, गुणों से परिपूर्ण हैं, कुल, रूप तथा वय से विशिष्ट हैं, और अन्य श्रमणों-मुनियों को अति इष्ट हैं, ऐसे आचार्य को ‘हे भगवन्! मुझे स्वीकार करो’, ऐसा कहकर प्रणाम करता है और आचार्य के द्वारा अनुगृहीत किया जाता है । पुन: वह ‘‘मैं किंचित् मात्र भी पर का नहीं हूँ, पर भी किंचित् मात्र मेरे नहीं है ।

इस लोक में आत्मा के सिवाय अन्य कुछ भी मेरा नहीं है इस प्रकार निश्चय करके जितेन्द्रिय होता हुआ ‘यथाजात’ रूपधारी हो जाता है । जन्मसमय के जैसा रूप वाला, शिर और दाढ़ी मूँछ के केशों का लोंच किया हुआ, परिग्रहरहित, िंहसादि से रहित और प्रतिकर्म-शरीर श्रङ्गारादि से रहित ऐसा लिंग यतिधर्म का बहिरंग चिन्ह है । मूर्च्छा और आरंभरहित, उपयोग और योग की शुद्धि से युक्त तथा पर की अपेक्षा से रहित ऐसा जिनेन्द्रदेव का लिंग श्रमण अवस्था का अंतरंग लिंग है जो कि अपुनर्भव-मोक्ष का कारण है । तत्पश्चात् परमगुरु के द्वारा प्रदत्त उन दोनों लिंगों को ग्रहण करके उन्हें नमस्कार करके व्रतसहित क्रिया को सुनकर प्रतिक्रमण आदि के द्वारा उपस्थित होता हुआ वह श्रमण होता है ।

व्रत, समिति, इन्द्रियरोध, लोंच, आवश्यक, अचेलत्व, अस्नान, भूमिशयन, अदंतधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त-श्रमणों के इन अट्ठाईस मूलगुणों को जिनेन्द्रदेव ने कहा है । उनमें प्रमत्त होता हुआ श्रमण छेदोपस्थापक होता है । अर्थात् इन भेदरूप मूलगुणों में अपने को स्थापित करता हुआ-मूलगुणों में भेदरूप से आचरण करता हुआ छेदोपस्थापक कहलाता है ।’’ इस प्रकार से आध्यात्मिक ग्रंथ प्रवचनसार में भी चरणानुयोग चूलिका में भगवान श्री कुन्दकुन्ददेव ने दीक्षा का क्रम बताया है । अब आचारसार आदि ग्रंथों में दीक्षा के योग्यपात्र का वर्णन जैसा बताया है, वैसा यहाँ कहते हैं।

‘‘जो आचार्य लोकव्यवहार की सब बातों को जानने वाले हैं, मोहरहित और बुद्धिमान् हैं उनको सबसे पहले यह मालूम कर लेना चाहिए कि यह देश अच्छा है’’

प्रदर्शित लेख

दीक्षा तीर्थ प्रयाग

भारतदेश की वसुन्धरा पर शाश्वत तीर्थ अयोध्या और सम्मेदशिखर के समान ही कर्मयुग की आदि से प्रयाग तीर्थ का प्राचीन इतिहास रहा हैं । आज से करोड़ों वर्ष पूर्व जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने अयोध्या में जन्म लेकर राज्य संचालन किया । पुनः संसार से वैराग्य हो जाने पर उन्होंने जिस सिद्धार्थ नामक वन में जाकर वटवृक्ष के नीचे जैनेश्वरी दीक्षा धारण की थी, वही स्थान प्रयाग के नाम से प्रसिद्धि हो प्राप्त हुआ, ऐसा जैन ग्रंथों में वर्णन आता है ।

भगवान ऋषभदेव

जैन पुराणों के अनुसार अन्तिम कुलकर राजा नाभिराज और महारानी मरुदेवी के पुत्र भगवान ऋषभदेव का जन्म चैत्र कृष्ण नवमी को अयोध्या में हुआ। वह वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर थे। भगवान ऋषभदेव का विवाह नन्दा और सुनन्दा से हुआ। ऋषभदेव के 100 पुत्र और दो पुत्रियाँ थी। उनमें भरत चक्रवर्ती सबसे बड़े एवं प्रथम चक्रवर्ती सम्राट हुए जिनके नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। दूसरे पुत्र बाहुबली भी एक महान राजा एवं कामदेव पद से बिभूषित थे।

अहिंसा और महात्मा गाँधी​

२६ दिसम्बर, १९०९ ई. को श्री अर्जुनलाल सेठी, ब्र. शीतल प्रसाद, श्री माणिकचन्द पानाचन्द मुंबई, श्री हीरालाल नेमचन्द सोलापुर, रायबहादुर अण्णासाहेब लठ्ठे ने लाहौर में बोर्डिंग की स्थापना की, जिसमें २४ विद्यार्थी सर्वप्रथम रखे गये। इस बोर्डिंग के सुपरिडेंट लाला लाजपतराय को बनाया गया था, क्योंकि लाला लाजपतराय जैन थे। उस समय के वातावरण में ‘अहिंसा से देश आजाद नहीं होगा – ऐसा चिंतन बढ़ रहा था। अतः लाला लाजपतरायजी ने यह पत्र गाँधीजी को लिखवाया। जिसके उत्तरस्वरूप महात्मा गाँधी जी ने निम्न पत्र लाला लाजपतराय जी को लिखा था।