जिनदेव के मुख से खिरी, दिव्यध्वनी अनअक्षरी।

गणधर ग्रहण कर द्वादशांगी, ग्रंथमय रचना करी।।

इन अंग पूरब शास्त्र के ही, अंश ये सब शास्त्र हैं।

उस जैनवाणी को जजूँ, जो ज्ञान अमृतसार है।।१।।

ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयी सरस्वती देवि! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।

ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयी सरस्वती देवि!अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।

ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयी सरस्वती देवि! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।

अथ अष्टक

चामर छन्द जैन साधु चित्त सम, पवित्र नीर ले लिया।

स्वर्ण भृंग में भरा, पवित्र भाव मैं किया।।

द्वादशांग जैनवाणी, पूजते उद्योत हो।

मोहध्वांत नष्ट हो, उदीत ज्ञानज्योति हो।।१।।

ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयी सरस्वती देव्यै जलं…..।